Wings of fancy

Tuesday, February 5, 2013

मनोदशा

''महिला ही जब महिला का तिरस्कार करे तो पुरुषों का क्या...''सुनकर वर्तिका थोड़ा ठिठुकी और अपने रास्ते पर चल पड़ी.
ऐसे कटाक्ष सुनने की वह आदीहो गई.
घर में सासू मां के कठोर शब्द तो उसने पति के न रहने के बाद आत्मसात ही कर लिए थे,हृदय पटल पर मलिनता की छाईं भी न पड़ती थी. यदि वह उनका भी बुरा मानती तो दुनिया मे और कोई था भी तो नही उसका अपना. बच्चियां दोनो अभी छोटी ही थी. इसीलिए वह स्वयं को स्तम्भ मानते हुए बड़ी सौम्यता से दायित्वों का निर्वहन करती जा रही थी. कभी-कभी वह समाज की भर्त्सना,कटाक्ष,विभाग की विषमताओं,बच्चों की कुण्ठा मां की वेदना और पारिवारिक चिन्ताओं से अकुता भी जाती थी. सोंचती-''हे प्रभु,क्या एक पुरुष ही नारी के जीवन का आलम्ब होता है,वही महिला के जीवन की ढाल होता है,खुशियों का आधार...सर्वस्व वही होता है...उसके बिना नारी का कोई अस्तित्व ही नही होता?'' अगले ही क्षण बच्चों का मोह सबकुछ विस्मृत कर देता है और पुन: पूर्वस्थिति में ही जकड़ लेता है.
उसके हृदय में अनेक तरह के विचारों का ज्वार-भाटा उठा ही करता था,कभी सकारात्मक हिलोरें तो कभी नकारात्मक,कभी विद्यालय जाते वक्त रास्ते मे तो कभी घर में रसोई बनाते समय. न कोई सुनने वाला न कोई सुनाने वाला. स्व सुनता और स्वयं सुनाती. एकबार वर्तिका के अन्त:करण मे प्रश्न गूंजा कि जब एक पति ही स्त्री का आलम्ब है तो क्यों नही चु लेती दूसरा पति? बेटियों को भी पिता मिल जाएगा,मां तो वृद्ध हो चली हैं,सेवा कर लूंगी...जवाब मे पता नही किस झिझकोर ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी-क्या सूरज की जगह उसे(अगले पति) दे पाओगी? यदि दे भी पाओगी तो उसे भुला पाओगी? भूलने की कोशिश भी की तो क्या सूरज का नाम ही मिटा दोगी?यदि हां तो मां सही तो कहती हैं 'कुलघातिनी'. यदि नहीं तो अगला पति स्वीकार करेगा कि तुम सूरज की काल्पनिक तस्वीर भी अपने हृदय से लगाओ! नही ना! तो जिन खुशियों के पीछे दौड़ रही हो उन्हे प्राप्त कर सकोगी??? इस तरह के अगणित प्रश्नों की धुंध से निकलने का रास्ता बस एक एक ही शब्द मे समाया हुआ था- ''नही,कदापि नहीं''
सूरज मेरा प्रेम है और रहेगा...साश्वत. अभी तो मां कहती हैं कुलघातिनी तब तो मैं सिद्ध कर दूंगी.अभी मेरी बेटियां स्व. कर्तव्यनिष्ठ की बेटियां हैं तब तो मेरी ही बच्चियां किसी अन्य की पत्नी होने के नाते मुझसे ही झिझकेंगी. इसलिए नही..नही..नही..बस. मेरे बच्चों के लिए,कुल की अस्मिता के लिए,नारी जाति के लिए...मेरे प्रेम के लिए.
इतने सघन द्वन्द के बाद उसका दिमाग बिल्कुल शून्य हो गया था,निर्जन.
कब नींद आई कब सबेरा हो गया,पता ही नही चला। सुबह होते ही फिर सबकुछ कल जैसा ही था,वही दायित्व,वही कार्य करने की ललक.
माँ को प्रणाम किया,बेटियों के साथ-साथ खुद भी तैयार होकर विद्यालय के लिए चल दी. (''माँ समय से खाना खा लेना,अपना ख्याल रखना,करना कुछ भी नहीं मैं आके सब कर लूंगी...'' आदि वक्तव्य जाने से पहले कहना मानों उसकी आदत में शामिल हो)
गाँव मे प्रवेश करते ही प्रकृति का सुखद संसर्ग सारी व्यथाओं का पान करता जा रहा था. ओस से नहाया शीतल वातावरण,सनसनाती शान्ति मे कोयल और मोर की मोहक आवाजें...
दोनो ओर से झुकी हुई लम्बी-लम्बी नम पतवार के माध्यम से प्रकृति ने पूर्णत: आलिंगित कर लिया था. 'आह!अन्त:करण निर्मल हो गया, हे ईश्वर!ये अलौकिक उपहार,निराली छटा गाँवों से कभी मत छीनना,सद्बुद्धि बनाए रखना यहाँ के लोगों की,शहरों ने तो सब निगल ही लिया है।' आदि मन ही मन सोंचती हुई गाँव पहुंच गई। किसी की आवाज कान मे पड़ी- 'विद्यालय मे अनुपस्थित मिलने के कारण शिक्षिका निलम्बित' पर अनसुना कर दिया 'मैं रोज विद्यालय आती हूं' सोंचकर. विद्यालय में उपस्थितु दर्ज करने को ज्यों
रजिस्टर खोला,मोटा मोटा लिखा था 'अनुपस्थित,स्पष्टीकरण दें अन्यथा निलम्बन'
तब उसे ध्यान आया कल माँ की तबियत कुछ खराब थी सो जल्दी चली गई थी और शायद हस्ताक्षर करना भी भूल गई थी पर बच्चों ने तो बताया ही होगा मैं आई थी. बच्चों से जवाब मिला-'हमसे कुछ पुछिन नाइ तबका'।वर्तिका-'कितनी देर रुके थे वो लोग,पढ़ाई-लिखाई के बारे में जो पूछा होगा सब बता दिया होगा तुम लोगो ने? एक बच्चा बोला 'दीदी जी कुछ नाइ पूछिन,आप मसाला छुअइ तक का मना करती हअउ,उनने हमहे से मंगाई थी।'
वर्तिका के अन्तर,जो एक वास्तविक शिक्षक बनना चाहता है,झुंझला उठा और वह स्टाफ के साथ जा बैठी। तब उसे पता चला 1000 रु.भिजवा दे सब ठीक हो जाएगा. उसने सोंचा,पति के साथ-साथ सारी खुशियां छिन गई,तब मेरा कुछ नही हुआ अब कौन क्या कर लेगा एक पैसा नहीं दूंगी,ना ही विद्यालय छोड़ के किसी की हें हें करने जाउंगी,नौकरी लेने की हिम्मत रखता है कोई तो लेले,काटले मेरा वेतन,कर्तव्यनिष्ठा की जड़ें गहराई तक होती हैं,कोई न देखे ईश्वर देखता है'
उठी,बच्चों को पढ़ाने/खेलाने में मशगूल हो गई। 2:30बजा ही था आज फिर स्टाफ जाने लगा,किसी ने कटाक्ष छोड़ा-''चलो दीदी,आज का समय गाँधी बनने का नही है,उसदिन आपके छूटे दसखत ईश्वर कर नही गये थे''
मूक ही रही,मानो मौन ने कटाक्ष के गाल पर तमाचा जड़ दिया हो.तब तक एक और अध्यापक महोदय-न हो यहीं घर बनवा लो वर्तिका वैसै भी तुम्हारी सास..'' वीच मे ही ''आगे मत बोलना श्रीमान!आप क्या जैसे क्या समझेगे हम महिलाओं की मनोदशा,बहुत बार वो बोलती कड़ुआ है,लेकिन हित छुपा रहता है। मेरी माँ..जिसने सिर्फ यही सुना,जाना ऐर माना हो कि बेटा के अग्निदान, श्राद्ध,पिण्डदान के व्यक्ति सर्वदा नरकगामी होता है,इतना ही नही वह तो कहती हैं कि ऐसे व्यक्ति का कई जन्मों तक उद्धार नही होता है,उसे चिड़चिड़ाहट और कटु शब्दों के सिवा कुछ सूझेगा! और यदि वह कटु न बोलतीं तो आप महानुभावों की सहानुभूति कैसे मिलती!उन्हें शायद यह नहीं पता कि आप जैसे सुपुत्रों की माँ हास्पिटल मे सड़ है और बेटा मटर-गश्ती करता हुआ घूम रहा है,अपने कर्तव्य तक का बोध नहीं है जिसे!
पर माँ की ममता तो अतुल्य...'
मानो सारी चुप्पयों का गुबार उड़ेल दिया हो यहा पर.इतना सुन महोदय ने अपनी राह ली और...

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